अबकी बरस भेज भईया को बाबुल.......................


अबकी बरस भेज भईया को बाबुल.......................


अबकी बरस भेंज भईया को बाबुल.......................


वर्ष 1963 में फिल्म बंदिनी के गीत पर यदि हम ध्यान दे तथा उस समय के श्रावण पर्व से आज के पर्व की तुलना करें तो हम पायेगे कि हमनें बहुत कुछ खोया है। किस खूबसूरती के साथ गीत में शब्दों और भाव से विरह वेदना, प्रेम, बाल्यावस्था,युवावस्था, भाई-बहिन के प्रेम, और माता-पिता के प्रेंम को जीवन्त रूप में फिल्माया गया है। अफसोस है कि अब इस तरह की फिल्में नही बनती, और यदि बन भी जायेगी तो शायद दर्शक नही मिलेगे। आज इस नगमें के द्वारा हम भारतीय त्यौहार रक्षाबन्धन और इसकी एक लम्बी विरासत को समाज के सामनें लानें का प्रयास कर रहे है।

देखा जायें तो आज रक्षाबन्धन या फिर कोई अन्य त्यौहार ही क्यो न हो सभी अपनी पुरानी भाईचारे, समन्वय और प्रेंम की विरासत को खोते जा रहे है। आधुनिक भेड़चाल के चलते मानवीय मूल्यों का निरन्तर पतन हो रहा है। भाईचारे की भावना को स्वार्थ रूपी मानसिक संकीर्णता के कीड़ो ने कुतर डाला है, जिसके चलते त्यौहारों के प्रति लोगो में कोई खास उत्साह नही देखा जाता है केवल परम्पराओं के नाम पर लीख पीटी जा रही है।

प्राचीन काल से ही पर्व समाज को एकजुटता और भाईचारे के सूत्र में पिरोनें का काम करते रहे है। तभी पूर्व से ही सावन मास में प्रकृति को संरक्षित और संवर्धन करनें के काम में जनसहभागिता दिखायी पड़ती थी, लोग उत्साह के साथ वर्षा जल सिचिंत करते थें, वृक्षों का रोपण किया जाता था, जलाशयों, नदियों, सरोबर, पोखरों और तालाबों की साफ-सफाई की जाती थी, तथा रक्षाबन्धन पर्व की विशेंष तैयारियां की जाती थी, लोक संस्कृति को बढ़ावा देते लोकगीत कजरी, आल्हा कथा, मल्हारे गाये व सुने जाते थे, पेड़ो पर झूले डाले जाते थे लोग रक्षाबन्धन वाले दिन शाम को भुजरियां तालाबों में प्रवाहित कर एक दूसरे को देर रात तक शुभकामनायें देते थें, गरीब व असहाय लोगो की लोग मदद करतें थें उन्हे पकवान और अनाज देते थें। एक अलग ही उत्साह होता था, यह सब परम्परायें तो अब यदा कदा ही देखनें को मिलती है। इन परम्पराओं का इस तरह से विलुप्त होना नि:सन्देह एक चिन्तनीय विषय है जिसकी पुन: स्थापना हेतु समाज को आगे आना होगा तभी भारतीय संस्कृति समाज में जीवित रह सकेगी।


इस पर्व पर बहिनें अपनें भाईयों की रक्षा के लिए उनकी कलाईयों पर रक्षासूत्र बांधकर उनकी लम्बी उम्र की कामना करती है। भाई भी उनकी रक्षा के लिए अपनी जिम्मेदारी का बोध कराते है। अब भाईयों को चाहियें कि बहिनों की रक्षा के साथ- साथ उन्हे शिक्षित करनें को अपनी  प्राथमिकता में शामिल करें, तथा घर परिवार समाज में यह जागृति फैलायें कि हर घर की बेटी शिक्षित हो, क्योकि जब बेटियां पढ़ेगी तभी एक शिक्षित समाज का निर्माण होगा। तथा त्यौहारो को उत्साह और भाईचारे की भावना के साथ मनायें, अपनी प्राचीन लोक संस्कृति को बढ़ावा दे, ध्यान रहे कहीं आधुनिकता की दौड़, हमारी भारतीय संस्कृति की भक्षक न बन जायें। आधुनिक बनियें लेकिन अपनी जड़ो से जुड़े रहियें और संस्कृति के रक्षक बनियें, तभी सच्चे अर्थों में रक्षाबन्धन पर्व अपनी उपयोगिता सिद्ध कर पायेंगा। और यह पर्व अपनी गौरवशाली भारतीय परम्परा के रुप में समाज को एकजुटता के रूप में जोड़ पायेगे।


लेखक
गौरव सक्सेना
उक्त लेख को दैनिक समाचार पत्र देश धर्म नें 08 अगस्त 2021 को अपनें अंक में प्रकाशित किया है। 


अबकी बरस भेज भईया को बाबुल.......................

Gaurav Saxena

Author & Editor

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