यह शहरे हवा क्या हो गयी......................
यह शहरे हवा क्या हो गयी।
ना जानें कौन सी खता हो गयी।।
घरौदो में छिपी जिन्दगी हताश हो गयी।
अरे, अब तो सांसो की भी पहरेदारी हो गयी।।
सुना है शहरों में कोई बीमारी आम हो गयी।
देखते ही देखते सरे आम हो गयी।।
बचते – बचाते कब तक रहेगे, साहब..
अब तो हाथों को मलनें की बीमारी सी हो गयी।।
हवाओं को छेड़ने की सजा मिल गयी।
परिन्दों को सतानें की बददुआ मिल गयी।।
कब तलक चलेगी, यह लम्बी लड़ाई।
मुस्तैदी में ही होगी अब सबकी भलाई।।
कठिन दौर है गुजर जायेगा, उम्मीदों का साया उमड़ आयेगा।
बनाऐगे एतिहयादी ऐ जिन्दगी, और न जुल्म तेरा सहा जायेगा।।
कब तलक सतायेगी, हमें यह बीमारी ...
आखिर किसी रोज तेरा भी घरौदा, उजड़ जायेगा।।
आखिर किसी रोज तेरा भी घरौदा, उजड़ जायेगा.........
लेखक
गौरव सक्सेना
उक्त कविता को दैनिक समाचार पत्र " देश धर्म " नें अपनें सम्पादकीय पृष्ठ पर दिनांक 16 मई 2021 को प्रकाशित किया है।
उम्दा लेखन कार्य 👌👌
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