गुमनामी का एक चेहरा दुर्गा भाभी

गुमनामी का एक चेहरा दुर्गा भाभी

 

 गुमनामी का एक चेहरा दुर्गा भाभी

                   अंग्रेजों की गुलामी भरी जिन्दगी से भारत को एक लम्बें सघंर्ष के बाद आजादी मिली थी। इस आजादी के पीछे बलिदानियों की एक लम्बी श्रृखंला है, क्रान्ति सपूतों की अपनी महनीय विराट गौरव गाथा है। परन्तु मानवीय भुलक्कड़ प्रवृति अपनें इन वीर क्रान्तिकारियों के बलिदानों को अपनी स्मृति से विस्मृत करती जा रही है, गुमनामी के अन्धेरे में ना जानें कितनें वीर महापुरुषों का बलिदान खो चुका है जिसें समाज के सामनें लाकर सम्मानित करनें की महती आवश्यकता है जिससें उनका बलिदान अजर और अमर हो सकें।


                   भारत की स्वतन्त्रता में पुरूष क्रान्तिकारियों के साथ- साथ महिला क्रान्तिकारियों का भी एक अहम योगदान रहा है। जिन्होनें भारत माता को आजाद करानें के लिए पुरूषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर देशभक्ति को एक नयी चेतना तथा ऊर्जा दी थी। ऐसा ही एक नाम है दुर्गा देवी वोहरा जिन्हे दुर्गा देवी के नाम से भी जाना जाता है। दुर्गा भाभी शायद आज के समय में एक भूली- बिसरी कहानी है। 7 अक्टूबर 1902  को शहजादपुर ग्राम अब कौशाम्बी जिला में पंडित बांके बिहारी के यहां हुआ। इनके पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थें। आज दिनांक 7 अक्टूबर को दुर्गा भाभी की जयन्ती पर हम सभी को उनके बलिदान और अदम्य साहस को याद करनें की और उन्हे सम्मान देनें की आवश्यकता है। दुर्गा भाभी का मायका तथा ससुराल दोनो ही उस समय के संपन्न परिवार थें, परन्तु देशप्रेम की भावना ज्यादा दिन तक उन्हे घर की चौखट में बांध न सकी और वे क्रान्तिकारी दल का एक अहम हिस्सा बन गयी। उनका प्रमुख कार्य सभी क्रान्तिकारियों के लिए राजस्थान पिस्तौल, बम और बारूद लाना और ले जाना था, इतिहासकारों के मुताबिक चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों से लड़ते वक्त जिस पिस्तौल से खुद को गोली मारी थी, वह पिस्तौल दुर्गा भाभी ने ही लाकर उन्हें दी थी। 


उस वक्त भगत सिंह और राजगुरू को अपनें परिवार का नौकर बताकर अंग्रेजों की आंखों में धूल झौककर दोनो वीरों के प्राणों का रक्षा की थी। भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त जब केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने जाने लगे तो दुर्गा भाभी नें अपनी बांहे काटकर रक्त से दोनों वीरों का तिलक किया था और उनकी सफलता की कामना की थी। उस दौर में अंग्रेजी हुकूमत दंग थी कि भारत में महिलाये भी इतनी साहसी है, जिनसें मुकाबला कर पाना असम्भव था। खुद भाभी नें 9 अक्टूबर 1930 को अंग्रेजी गर्वनर हैली पर गोली चलायी थी, हैली तो उनकी गोली से बच गया था परन्तु एक अन्य अधिकारी टैलर घायल हो गया था। बालिका शिक्षा को भी भाभी नें अपना महत्वपूर्ण कार्य समझा तथा लखनऊ में स्कूल खोले।  


14 अक्टूबर 1999 को गाजियाबाद में इस महान क्रान्तिकारी और देशप्रेम की अलख जगानें वाली देवी नें अन्तिम सांस ली थी।  आज की नारी को दुर्गा भाभी से सीख लेकर आत्मनिर्भर बननें की आवश्यकता है।

उक्त लेख के अंश को समाचार पत्र दैनिक जागरण नें दिनांक 06 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित किया।

गुमनामी का एक चेहरा दुर्गा भाभी



लेखक
गौरव सक्सेना


Gaurav Saxena

Author & Editor

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