चुनाव में शार्टकट - व्यंग्य लेख

 

चुनाव में शार्टकट - व्यंग्य लेख

 

 चुनाव में शार्टकट - व्यंग्य लेख


मैं बागीचे में बैठा धूप सेंक रहा था। तभी मेरा पुराना चेला कनचप्पा आ धमका और हमेशा की तरह शार्टकट में प्रणाम करके आशीर्वाद लेनें के लिए लपका। तो मैने भी समय के अनुरूप शार्टकट में ही आशीर्वाद दे दिया। तो कनचप्पा बोला गुरूदेव आशीर्वाद में भी कंजूसी कर रहे है। इसे तो दिल खोल के दिया करियें।

तब मैनें समझाया कि बेटा दिल खोलनें का जमाना अब नही रहा। सभी लोग अपनें – अपनें काम शार्टकट में ही कर रहे है तो मैं भी शार्टकट पद्धति को ही अपना रहा हूं।

अरे गुरूवर आपकी रहस्यमयी बाते तो मेरे सर के ऊपर से निकल रही है। कृपया करके सरल भाषा में विजयी होनें का आशीर्वाद दीजियें और मुझे शार्टकट में सफल होनें का कोई तरीका बताइयें।

मैं कुछ समझा नही कनचप्पा जरा खुलकर बताओं किसमें सफल होनें की बात कर रहे हो।

तब कनचप्पा बोला - गुरूदेव मैं इस बार चुनाव में प्रत्याशी के रूप में खड़ा हूं। और मेरा चुनाव चिन्ह दाल- रोटी है। बताइयें मै क्या करू ? कैसे लोगो को रिझाऊ जिससें मैं अन्य प्रत्याशियों को पराजित करके विजयी हो सकूं।

देखो बेटा कनचप्पा चुनाव की लहर में अपनें आप को बहाकर ले जाना तो ठीक है। लेकिन अब समय बदल गया है। वोटर जागरूक हो चुका है। हर चीज की तरह इसमें शार्टकट नही चलता है। झूठे वादो से सरकारे नही चला करती। जनता काम देखती है और फिर अपनें मताधिकार का प्रयोग करके सही उम्मीदवार का चयन करती है। किसी सरकार को बनानें में आम जनता ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आम जनता का हर हाल में खुश होना अति आवश्यक होता है।

कनचप्पा मेरी बाते बेमन से सुन जरूर रहा था लेकिन मन ही मन में सफलता के लिए कोई शार्टकट की तलाश में था। लेकिन अपनी बात बनते न देख बोला कि गुरूदेव अन्य लोग वोटरो को लुभानें के लिए तरह – तरह के प्रलोभन दे रहे है। तो क्या मैं भी कुछ.......

मैं कनचप्पा की आदत से भली प्रकार से परिचित था। मैनें कहा कि ट्राई कर सकते हो। लेकिन सफलता की कोई गारन्टी नही है।

कनचप्पा मन ही मन मुझ पर क्रोधित हो रहा था। शायद उसे अपनी हार प्रत्यक्ष रूप में दिखायी दे रही थी।

कनचप्पा नें कहा कि मैं चुनाव प्रचार के दिन तक लोगो को फ्री में दाल- रोटी खिलाना चाहंता हूं। मेरा चुनाव चिन्ह भी दाल- रोटी है। मैं चाहता हूं कि आप मेरे इस कार्यक्रम की शुरूआत करें।

मैनें भी अपनें स्वास्थ्य का हवाला देकर बस यहीं कह दिया कि तुम किसी और से यह कार्य करवा लो। मेरा स्वास्थ्य सही नही है। लेकिन स्वास्थ्य तो शायद कनचप्पा का खराब हो चला था। जिसे जीतनें के लिए कोई शार्टकट नजर नही आ रहा था।

लोग कनचप्पा के द्वारा फ्री में बांटी गयी दाल- रोटी को किसी मन्दिर में बटनें वाला भगवान का प्रसाद समझ कर खाते चले गयें। और विजयी वह पार्टी हुयी जिसनें वास्तव में आम जनता के दुख – दर्द को समझा था। लोगो की समस्याओँ को समझा था। जनता के लिए जिसनें वास्तव में काम किया था।

लेकिन कनचप्पा अब अपनी हार से समझ चुका था कि लोगो का विश्वास जीतना इतना सस्ता और आसान नही है। तथा वह अपनी बचकानी सोच पर शर्मिन्दा भी था।

लेखक 

गौरव सक्सेना
 

Gaurav Saxena

Author & Editor

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