धूलकवि - व्यंग लेख

 

 

धूलकवि  - व्यंग लेख


 

धूलकवि  - व्यंग लेख

मई-जून की चिलचिलाती गर्मी नें आम आदमी को परेशान कर रक्खा है। और यह गर्मी मेरे जैसे कवि के लिए तो नासूर बनके आती है क्योकि हर एक आयोजक इन गर्मियों में हम जैसे कवियों को बुलाकर महंगे खर्चे से बचना चाहंता है। हम कवियों के लिए तो सर्दियों का ही समय उपयुक्त होता है। क्योकि आयोजक अपनी वांह वाही लूटनें के उद्देश्य से सर्दियों में खूब कवि सम्मेलन कराते रहते है और सम्मान में गर्म शॉल उड़ा देते है जिससें लौटते समय ट्रेन की खिड़की से आती सर्द हवा से हमारी रक्षा हो सके। और हमारी पूरी रात उस शॉल की गर्माहट को सहजते ही निकल जाती है। 

 

अचानक से फोन बज उठा तो फोन पर बातो का सिलसिला शुरू हुआ। पता चला कि एक कवि सम्मेलन का आयोजन हो रहा है जिसमें मेरा आमंत्रण है। आयोजक नें बताया कि हमें अपने खर्चे पर ही जाना- आना होगा लेकिन विदाई अच्छी खासी हो सकती है। मरता सो क्या न करता । और खाली बैठे से तो अच्छा ही है कि कोई कवि सम्मेलन में भागते भूत की लंगौटी ही मिल जायें। वैसे भी इस गर्मी नें तो हम कवियों की दुर्दशा ही कर दी है। 

 

मैंने श्रीमती जी को जानें की पूरी रूपरेखा बतायी और कल सुबह ही निकलनें की बात कही। रात को विश्राम करने के उद्देश्य से मैनें चारपाई पकड़ ली लेकिन सच्चाई तो यह है कि कवि सम्मेलन में शामिल होनें की खुशी में हम कवियों को नींद ही कब आती है।

 

स्टेशन पर पहुंचकर देखा कि खचाखच भीड़ से भरी ट्रेन नें प्लेटफार्म को स्पर्श कर लिया है, तो एक अच्छी खासी कसरत के साथ मैनें जोड़ तोड़ करके खिड़की वाली सीट पा ली। ट्रेन नें धीमें – धीमें गति पकड़ ली और मेरे गन्तव्य की दूरी कम होती जा रही थी। कुछ घन्टो की तपस्या के बाद मेरा स्टेशन आया और मैं स्टेशन से बाहर आकर ऑटो की खोज करनें लगा तो पता चला कि आज ऑटो वाले हड़ताल पर है कोई सवारी नही मिलेगी मुझे कवि सम्मेलन स्थल पर जानें के लिए पद यात्रा ही करनी पड़ेगी। इस चिलचिलाती धूप में पद यात्रा ......... लेकिन मरता सो क्या न करता चल दिया पद यात्रा पर ......

 

पता चला कि कवि सम्मेलन शुरू हो चुका है कई कवि अपना हुनर दिखा भी चुके है। मैनें जल्द ही आयोजक से सम्पर्क साधा तो पता चला कि अभी मेरा नम्बर नही निकला है। मैनें अपनी चाल दुगनी कर दी और धूल मिट्टी से लिपटे वस्त्रो में मैनें अपनें आपको आयोजक के हवाले कर दिया। आयोजक नें कहा कि आप इतनें गन्दे कपड़ो में मंच पर जायेगे तो लोग क्या कहेगे। तो मैने उन्हे बताया कि कोई बात नही आप मेरी प्रस्तावना में यह बोले कि मैं धूल भरे कवि को आमंत्रित्र करनें जा रहा हूं जिनका उपनाम धूलकवि है। और वह स्वंय ही सभी श्रोताओं के मध्य अपनें इस अन्दाज और नाम की महिमा का बखान करेगे। इतना कह कर आप मुझे मंच पर आमंत्रित्र करे और फिर सबकुछ मेरे ऊपर ही छोड़ दें। मेरे इस उपनाम को सुन सभी श्रोता उत्सुक हो गये। मैनें मंच पर चढ़नें के लिए जैसे ही पैर बढ़ाया कि मेरा पैर किसी नें पकड़ लिया हो, मेरे लाख कोशिश करनें के बाबजूद भी मेरा पैर आगे नही बढ़ रहा था। और अचानक से तेज बारिश होने लगी मेरी नींद खुली तो पाया कि श्रीमती जी मुझे जगानें के लिए पैर खींच रही थी और मेरे मुख पर जल वर्षा कर रही थी। वह क्रोधित हो बोली क्या आपको कवि सम्मेलन के लिए नही जाना है या फिर सोते ही रहना है। आज फिर कवि सम्मेलन मेरे काव्य पाठ से वंचित रह गया क्योकि मेरे स्टेशन पहुंचनें पर पता चला कि कवि सम्मेलन तक पहुचांनें वाली इकलौती ट्रेन निकल चुकी है। मैं मायूस होकर घर वापस लौट आया एक नया नाम लेकर धूलकवि” 

 

 लेखक

गौरव सक्सेना

उक्त व्यंग लेख को दैनिक समाचार पत्र देश धर्म नें दिनांक 4 जुलाई 2021 को अपनें अंक में प्रकाशित किया है। 

धूलकवि  - व्यंग लेख


Gaurav Saxena

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