लठ्ठमार लॉकडाउन – व्यंग लेख




लठ्ठमार लॉकडाउन व्यंग लेख


लठ्ठमार लॉकडाउन – व्यंग लेख




लॉकडाउन जब से लगा है लेखक मनसुख साहब बहुत परेशान रहते है, अपने नाम का विरोधाभास उनमें इसी काल में देखा गया है। इससे पूर्व में क्या समय था रोज गोष्ठियां और सम्मेलनों में आना- जाना लगा रहता था, हर शाम मौहल्ले मे साहित्यिक महफिले सजती थी जो रात के 10 बजे तक किसी न किसी विषय पर टिकी रहती थी। अब तो केवल बीबी की डांट ही सम्मान स्वरूप मिलती है। 


अखबारों में अब लेख भी नही निकलते, पत्रिकाऔं के प्रकाशको नें भी फोन उठाना बन्द कर दिया है, अपनी पुरानी आदत के चलते घर के अन्य फोन नम्बर से भी प्रकाशको को फोन कर के देख लिया है, कोई रास्ता नजर नही आ रहा है। घर का खर्चा बरकरार है लेकिन आमदनी फूटी कौड़ी नही है। मन व्यथित, चिन्तित और न जानें क्या – क्या है।  


मन का सुख तो मानों लॉकडाउन ने जीवन से नदारत ही कर दिया है। दिनभर घर पर बैठे – बैठे लिखकर केवल कागज ही तो भरे जा रहे है। नवीन विचार मन- मस्तिष्क में आते ही नही है क्या सरकारी लॉकडाउन विचारो पर भी लग गया है। टी0बी0 देखू तो वहॉ भी शान्ति नही मिलती है, टी0बी0 तो बीबी से भी ज्यादा हमलावर हो गयी है। किसी तरह अपनी जान बचाकर समय काटना ही बुद्धिमत्ता होती है। पास पड़ोस में उठना- बैठना भी इस लाइलाज बीमारी कोरोना नें डस लिया है। यह कोरोना मईया कहीं मेरी दईया – मईया न कर दे इसकी चिन्ता भी आये दिन सताती रहती है। इसीलिए मै स्वंय को और अपनी लेखनी को समय- समय पर सेनेटाइज भी करता रहता हूं। कल शाम को ही अपनी नवीन रचनाऔं के पृष्ठों को सेनेटाइज कर रहा था तो वकोध्यानम् स्वभाव में महारथी पत्नी नें देख लिया फिर क्या था, महाभारत ही छिड़ गयी और कई तरह के नये नियमों का हवाला भी दे दिया गया। उसके नियम तो सरकारी नियम से भी ज्यादा कड़े होते है जिनके उल्लघन की कल्पना तक से रूह कांप उठती है। 


बहुत परेशान हूं, सोच रहा हूं कि इस लेखन कार्य में कुछ नही रक्खा कोई और काम शुरू किया जाये। रात दिन सोच- सोच कर परेशान हूं कि कौन सा नया काम शुरू किया जाये, तभी न जानें कहॉ से विचार आया कि नेता बन जाऊ, पुरानी जान- पहचान तो ठीक – ठाक है ही, लोगो के काम करवा दिया करूगां और खूब पैसा भी कमा लिया करूंगा। नेता बननें के दिवास्प्न नें मुझे इतना ज्यादा प्रभावित किया कि मैं बिना किसी को बताये धोती- कुर्ता और सिर पर टोपी पहन चुपचाप घर से निकलनें लगा लेकिन वकोध्यनम् से कहॉ कोई बच पाया.............. कड़क आवाज आयी कहॉ जा रहे हो ? और यह क्या बहरूपिया रूप बना लिया ..... मैं मैं.... 


क्या मैं मैं..... अरे कुछ नही बाहर जाकर सब्जी खरीदनें जा रहा हूं, सोचा कि सब्जी की कहूंगा, तो मूक सहमति मिल ही जायेगी।
ठीक है लेकिन जल्दी आना.....


मैनें नेता होनें का प्रथम लक्ष्य मेल मिलाप को अपनें मित्र रंजन के घर से ही प्रारम्भ करना चांहा औऱ उसके घर के दरवाजे की डोर बेल बजायी। दरअसल रंजन मेरा जूनियर रहा और एक छुटभईया लेखक है, सोच रहा हूं कि दुख के समय पर मित्र ही सच्चा साथी होता है। तो उससे मिलकर ही नेतागीरी का श्रीगणेश करूं। मित्र को तो दरवाजे पर आनें मे देर लग रही है। तभी अचानक से एक दर्दभरी जोरदार आवाज आयी, पलटकर देखा तब तक पुलिसवाले नें एक और लठ्ठ पेल दिया, बोला लॉकडाउन का उल्लघन कर रहे हो, मेरा तो मानों नेतागीरी का आवेदन फार्म ही रिजक्ट हो गया हो। मैनें जैसे तेसे अपनी वाकपटुता से उसे समझाया और किसी तरह बचता हुआ अपनी धोती उठाये घर पर पहुंचा तो श्रीमती ने पूछा कि सब्जी में क्या – क्या लाये हो


मेरी लड़खडाहट भरी चाल को देखकर श्रीमती नें इसका रहस्योदघाटन करनें के लिए कहा, तो मैनें यहीं कहा कि नाले में गिर पड़ा .................. इसी की वजह से बहुत दर्द हो रहा है।
दर्द से बेहाल मेरी रात कटी और नेतागीरी का विचार तब से ना जानें कहॉ चला गया। ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हूं कि इस लॉकडाउन में नेतागीरी का विचार मेरे किसी दुश्मन तक के मन में ना आये........आ आ बड़ा दर्द हो रहा है। .......इस लठ्ठमार लॉकडाउन से तो मेरी लेखनी ही अच्छी है। कम से कम बीबी की ही तो मार .......स ह नी .... पड़ेगी।



लेखक
गौरव सक्सेना

Gaurav Saxena

Author & Editor

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