ईश्वर किसी को भूखा नही सोने देगा

सर्दियों की हाड़ कपा देने वाली सुबह ने आज कुछ ज्यादा ही कहर बरसा रक्खा था, पेट भरनें की जद्दोजहत में लोगों की जिन्दगी जैसे- तैसे रेंग रही थी। परिन्दों ने भी धीमी उड़ान भरनी शुरू कर दी थी, जानवर भी दाना पानी के लिए खेतो की और रूख कर रहे थें। आज दिन भी कुछ खास ही था, अंग्रेजी कैलेन्डर का नव वर्ष जो प्रारम्भ हो रहा था, अत: लोगो में नव वर्ष के प्रति अति उत्साह साफ दिखाई पड़ रहा था। मैनें भी अपनी दिनचर्या की शुरूआत मन्दिर जाकर पूजा अर्चना से शुरू की, मन्दिर की चौखट पर हमेशा की तरह आज भी बूढ़ी दादी आने जाने वालों को आर्शीवाद दे रही थी, और श्रृदालु श्रृद्धानुसार चन्द सिक्के बेचारी की झोली के हवाले कर देते। मैं अकसर मन्दिर आनें पर उनके बारे में जरूर सोचता था, सुबह से लेकर शाम तक अपनें आराध्य के सन्मुख रहकर पेट भरने का इन्तजाम करना और गौ धूलि बेला में आरती उपरान्त घर जाना और फिर अगले दिन पेट भरने की चिन्ता, नि: सन्देह जीवन की इस गौ-धूलि उम्र में बूढ़ी दादी के लिए अत्यन्त कष्टकारी ही था। 

खैर, श्रृदालुओं की भीड़ से खचाखच भरे मन्दिर में पूजा अर्चना जोर शोर से चल रही थी। मैनें भी अपनी पूजा समाप्त कर बाहर जानें के लिए मुख किया ही था कि तभी मानों दृश्य ही परिवर्तित हो गया हो । पेट की भूख में उस बूढ़ी दादी के अतिरिक्त कोई और भी संघर्षरत था। एक गौ-वंश जो कि उस दादी की पोटली में रक्खी हरी भरी सब्जियों को निहार रहा था और शायद अवसर पाकर पेट की ज्वाला भी शांत करना चाह रहा हो. देखते ही देखते गो-वंश ने अपनें मुख से उस थैले को खीचकर खाना प्रारम्भ कर दिया, पास खडें लोगो ने उसके मुख से थैले को छीनकर बेचारी दादी को वापस दिलाने की असफल कोशिश भी की। शायद बूढ़ी दादी घर से आते समय गांव की पगडन्ड़ी से सस्ते दामों मे सब्जी खरीदकर शाम के भोजन के लिए लायी होगी, और वह भी आज छिन गया, मैं यह सब देखकर अवांक रह गया, मैं क्या करता दादी के पेट की भूख को बचाता या फिर गौ-वंश के पेट की भूख को मिटाता। 



और फिर मैने सोचा कि पेट भरने की चिन्ता तो मुझसे कहीं ज्यादा उस परमपिता परमेश्वर को है जिसके सन्मुख यह घटना घटित हुई। इसी सोच और कई सारे प्रश्नों की श्रृखंला ने मानो मेरे मन मस्तिक में प्रहार करना शुरू कर दिया हो। मैनें एक बार उस दादी को देखा और फिर गौ-वंश को फिर परमपिता परमेश्वर को। और आज ईश्वर के ऊपर इस घटना के परिणामों को छोड़कर जाने ही वाला था कि तभी एक बड़ी सी कार का दरवाजा खुला और उसमें से कुछ लोग मन्दिर के अन्दर चले गये और शेष बचे लोगो नें खाने का सामान और कुछ वस्त्र उस दादी को दिये, तथा उस गौ-वंश को भी खाने को दिया जो कि दादी की सब्जियां हथियाने के कारण उपेक्षा का शिकार हो किनारे खड़ा लोगो की डांट सहन कर रहा था। ईश्वर किसी को भूखा नही सोने देगा यह सोचकर मैं वहॉ से निकल पड़ा। और तभी सें मैने यह निश्चय किया कि सब कुछ ईश्वर पर छोड़ना ठीक नही होगा हम इन्सानों की भी तो कुछ जिम्मेदारी है। और मैने यह निश्चय किया कि मैं भी यथा सम्भव गरीबों की मदद अवश्य किया करूंगा ।

गौरव सक्सेना


Gaurav Saxena

Author & Editor

0 Comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in comment Box