लिखनें - पढ़ने का पुराना शौक अब तो मेरे लिए एक बड़ी मुसीबत बनता जा रहा है, घरेलू काम काज से फुरसत ही कहॉ नसीब हो पाती है जो अच्छा साहित्य लिख सकूं, लेखन मित्र मंडली में मैं ही एक ऐसा किस्मत का मारा बचा हूं, जिसकी झोली में अभी तक कोई साहित्यिक सम्मान नही आया है। अजी अब तो गृह क्लेश के चलते प्रति दिन इतना अपमान सहना पड़ता है कि सम्मान शब्द सें ही नफरत होने लगी है। क्या करूं, क्या न करूं समझ में ही नही आ रहा है ? आखिर कब तक ऐसे मैं घर वालों से छिप-छिप तक साहित्य सम्मान की झूठी आस में लिखता रहूंगा। अचानक से श्रीमती जी की चीखती आवाज ने मेरा ध्यान भंग कर दिया, अरे लेखक महोदय ! दरवाजे की बजती घंटी भी सुन लिया करों।.... हॉ हॉ ठीक है, कह कर दरवाजा खोला तो देखा कि एक पुराने मित्र आये है, आने का प्रयोजन पूछनें पर पता चला कि उनकी एक दरखास्त लिखनी है और मुफ्त में भविष्य में भी लेखन कार्य की झूठी आस में श्रीमान जी का बैंक एकाउंट फार्म भी खोलना है। मरता सो क्या न करता।
चश्मा
उतारकर मैने श्री मान जी को दरखास्त और बैंक फार्म थमाते हुये अपनी फीस बताई, बड़ी खीचा तानी से बमुशिकल 50 रू0 से ही बोनी हो पायी तो सोचा चलो कुछ
लेखन साम्रगी तो खरीद ही लेगे, परन्तु परदे के पीछे श्री मती जी तो मानो मेरे
क्लाइंट के जाने का इंतजार ही कर रही हो तपाक से आ धमकी और कमाई का नोट खीचते हुये
बोली कि राशन का सामान नही खरीदना है क्या ? जो नोट को अपनी जेब में रख रहे हो। “लेखक के साथ – साथ अब तो तुम चोर भी
बनते जा रहे हो “
हे राम! नकारा, कंजूस और आलसी लेखक
जैसे सम्मानों के बाद आज एक और नया सम्मान चोर शब्द भी मिल गया है। सोच रहा हूं कि
श्री मतीजी के शब्दकोष में और कितने अलंकार मेरे लिए अभी संरक्षित रह गये है। चलो
कोई बात नही, घरेलू हिंसा के यह सम्मान शायद साहित्यक
सम्मान की आस की पीड़ा से कम ही कष्टकारी होगे। फोन पर बतियाती हुई श्रीमती जी ने
फोन को मेरे कान पर आकर रक्खा तो सोचा कि अब कौन सी नयी मुसीबत आ धमकी, अभी 15 दिन पहले तो चिन्टू की कोचिंग की फीस भरी ही थी। बातचीत के दौरान
पता चला कि श्रीमती जी के फूफा जी अब रिटायर हो गये है और साहब को भी लेखन का नया
नया शौक चढ़ा है, खाली बैठे रहते है तो कुछ अखबारों में लेखन
कार्य करके शहर में नाम कमाना चांह रहे है।
पहले तो मैने काफी समझाया कि आप इस
लेखन कार्य के पचड़े में न पड़ो यह तो कांटो भरी राह है, परन्तु श्री मानजी कहां मानने वाले, बोले अरे नही नही, तुम मेरे लिए अच्छा सा एक लेख लिख दो जिसे मैं अपने नाम से अखबार में
छपवाकर लेखन कार्य का श्री गणेश कर सकूं और अपना नाम कमा सकूं। तो मैने पूछा कि आप
लिखने हेतु विषय बताये तो वे बोले कि “ घरेलू हिंसा “। फोन कटने
के बाद मैने कहा कि इस विषय पर लिखने की क्या आवश्यकता है मेरे घर पर ही एक माह के
लिए डेरा डाल लो, घरेलू हिंसा के जीते जागते नमूने के साथ रहोगे
तो किसी से इस विषय पर लिखने के लिए नही कहना पड़ेगा, खुद ही इतने पारंगत हो जाओगे कि लेख क्या पूरा-पूरा उपन्यास ही लिख लोगे।
तभी श्रीमती जी ने आदेश दिया कि फूफा जी से बात हो गयी है। उनका जो भी काम हो बिना
कोई बहाने बनाये कर देना। मैने दबे स्वर में हॉ बोला और जुट गया घरेलू हिंसा
अर्थात अपनी आप बीती लिखने। तब से लेकर आज तक मैं घरेलू हिंसा का शिकार होकर
साहित्य सम्मान की प्रतिक्षा में निरन्तर लेखन कार्य करता जा रहा हूं।
लेखक
गौरव सक्सेना
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