मेरी हिन्दी कहीं गुम ना हो जाये।



मेरी हिन्दी कहीं गुम ना हो जाये।


मैं व्यथित हूं, अत्यधिक भयभीत और घोर निराशा के बादलों में घिरा हूं। विषय भी काफी गम्भीर है कि अपनी प्राचीन हिन्दी भाषा को विदेशी भाषायी आक्रमणों से कैसे बचाये, मुझे किसी विदेशी भाषा के वर्चस्व, बढ़ते उपयोग से कोई गुरेज नही है। परन्तु समस्या यह है कि अपने ही घर में सिसकियों में दबी हिन्दी के अस्तित्व कों कैसे बचाया जाएं। आज अपने ही घर में हिन्दी पराई हो चली है। कभी साहित्य पुष्प वाटिका में गुजायमान होती हिन्दी आज अपनें ही अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। दूसरी भाषाओं को समाज और अपने घर में स्थान दिलावाना तो हिन्दी की ही दरियादिली रही है परन्तु इसका परिणाम हिन्दी की निरन्तर होती दुर्गति क्यो है ?
 
हिन्दी ने क्या नही दिया समाज को, सब कुछ तो इसके संरक्षण में लगे माली रुपी लेखकों ने अपनी लेखनी के रुप में उड़ेल दिया है। साहित्य से समाज को हिन्दी ने ही जन जन की भाषा बनाकर भारत को सुदृण बनाया है। जब- जब देश किसी भीषण संकट, आपदा या फिर बाहरी आक्रमणों से ग्रस्त हुआ तब- तब हिन्दी के लेखकों, कवियों ने ही हिन्दी को माध्यम बना समाज को एक सूत्र में बांधने का काम किया।  

परन्तु वर्तमान परिवेश में नजर डाले तो हिन्दी की स्थिति अत्यधिक दयनीय है। आज समाज का दृष्टिकोण इस कदर परिवर्तित हो चला है कि लोग हिन्दी को पिछड़ा समझकर विदेशी भाषा अंग्रेजी को आम बोलचाल की भाषा में प्रयोग कर स्वंय को गौरवान्वित महसूस करते है। वही निजी शैक्षणिक संस्थानो ने भी अपना पूरा पाठ्यक्रम अंग्रेजीमय बना रक्खा है। नाम मात्र के लिए केवल एक विषय के रूप में हिन्दी को पढ़ाया जाता है और अन्य विषयों का पाठ्क्रम अंग्रेजी में है। बच्चो को हर विषय अंग्रेजी में ही पढ़ाया जाता है और जिसका अनुवाद तक हिन्दी में करके बच्चों को अर्थ तक नही समझाया जाता है।

 यह अत्यन्त भयावह स्थिति है कि मातृभाषा का दर्जा प्राप्त हिन्दी को ही देश में बहिष्कृत किया जा रहा है। हमने आधुनिक होने के नाम पर न जाने क्या ठान रक्खा है जो कि हम अपने देश के बच्चों को मातृभाषा में ही कमजोर बना रहे है। यहीं कारण है कि बच्चो को हिन्दी के छोटे छोटे शब्दों के अर्थ तक नही आते है। और हिन्दी महाकाव्यों के प्रति उनकी उदासीनता उनके अन्दर हिन्दी के प्रति पनपती संकीर्ण मानसिकता का ही प्रतिफल है। 

अंग्रेजी का बोलबाला इस कदर लोगो के सर चढ़कर बोल रहा है कि लोगों ने इसे पढ़ने- लिखने में पूर्णतया शामिल कर लिया है और हिन्दी लेखन की प्राचीन संस्कृति पर खतरा मडरा रहा है। अगर हिन्दी के संरक्षण की दिशा में कोई ठोस कदम न उठाया गया तो वो दिन दूर नही जब देश से हिन्दी लोक संगीत, कला, साहित्य केवल अतीत के पन्नों मे सिमट कर रह जायेगी और हिन्दी के जानने वाले बहुत कम रह जायेगे और यह भी कहना अतिश्योक्ति नही होगा कि हिन्दी भाषा के कार्य के लिए हमें अनुवादक (ट्रासंलेटर) खोजने होगे।
 लेखक
 गौरव सक्सेना


Gaurav Saxena

Author & Editor

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