ससुराल की यादगार होली

 

ससुराल की यादगार होली

ससुराल की यादगार होली


हैलो, जीजा जी कैसे है, इस बार होली पर घर आना है दीदी तो पहले से ही यहॉ पर है बस आप की ही कमी है, आप समय से आ जाना। मुझे तो होली की याद ही नही थी, आखिर इस महंगाई में आम आदमी को त्यौहार कहॉ याद रहते है। मैं साली साहिबा को भला कैसे नाराज कर सकता था, सो होली पर स्वयं को ससुराल के हवालें करनें का आस्वासन दे दिया और जुट गया ससुराल जानें की तैयारी में, देखते ही देखते होली का दिन भी आ गया सो मैं नये स्वेत वस्त्र धारण कर बस से ससुराल जानें के लिए घर से निकला ही था कि पड़ोस के कुछ लड़को नें मेरा रास्ता रंग भरी पिचकारी दिखाकर रोका उनकी पिचकारी मेरे लिए पिस्टन से कम न थी। लेकिन मैं उन हुड़दंगी लड़कों का मुकाबला करनें में सफल हुआ नतीजन कोरा कोरा बिना रंग से रंगे बस में बैठ गया।

यदि रंगो से पुता हुआ ससुराल पहुंचा औऱ ससुरालियों नें मुझे न पहचाना और यदि पहचान भी लिया तो साली साहिबा क्या सोचेगी। आखिर होली पर ससुरालियों के भी तो कोई अरमान है। इसी सोच के चलते स्वयं को रंगो से बचाते हुयें बस की खिड़की बन्द कर यात्रा कर रहा था। तभी बस नें अचानक से ब्रैक लिए और डगमगाकर खड़ी हो गयी। आखिर बस को भी आज ही खराब होना था। अन्य यात्रियों की तरह मैं भी पद यात्रा शुरू कर चुका था क्योकि कई घन्टों के इन्तजार के बाद भी ससुराल के लिए कोई सवारी नही मिली।

हारा थका बस जैसे-तैसे चल रहा था कि तभी कुत्तों के झुण्ड नें आकर के रास्ता रोका अब भला इनसे कैसे मुकाबला करू। हुड़दंगी लड़को के रंगो से तो अपनें स्वेत वस्त्रों को बचा लिया लेकिन इन कटखनें कुत्तों के दांतो से बचना मुश्किल था। तभी एक उपाय सूझा औऱ ससुराल ले जानें के लिए खरीदे फलों की थैली कुत्तों के सामनें फेक कर जान छुड़ाई।

रास्तें में मिलनें वाली विपदाओं को मैं हनुमान जी की तरह पार करता जा रहा था और बचनें का पूरा प्रयास कर रहा था कि कहीं कोई रंग न लगा दें। लेकिन मुझे नही लग रहा था कि मेरा बिना रंगे ससुराल पहुंचनें का प्रयास सफल होगा भी या नही।

आगे जाकर देखा तो कुछ लोग धरनें पर बैठे मिलें जिन्होनें रास्ता रोक रक्खा था। धरनें का कारण महंगाई थी लोग नारेबाजी कर रहे थें कि इतनी महंगाई में भला होली कैसे खेले, रंग और गुलाल कैसे खरीदे, गुझियां के लिए मावा कैसे खरीदें। मैं भीड़ से निकलनें का प्रयास कर ही रहा था तभी एक मोटे तंगड़े कालिया टाइप के व्यक्ति नें मुझे पकड़ लिया और बोला आगे नही जा सकते हो, मैनें काफी विनती की तो उस व्यक्ति नें कहा की उसका नेता होली खेलनें अपनी ससुराल गया है मुझे उसके नेता का किरदार निभाना होगा औऱ भीड़ के सामनें महंगाई पर भाषण देना होगा। यदि सब कुछ सफल रहा तो मेरे लिए रास्ता खोल दिया जायेगा। मरता सो क्या न करता, बन गया नेता और देनें लगा महंगाई पर धुआंधार भाषण। लोगो की नारेबाजी का शोर बढ़ता ही जा रहा था, कि तभी पुलिस की गाड़ियां धरनें को धरासायी करनें के लिए आ धमकी। देखते ही देखते अफरातफरी मच गयी। पुलिस लठ्ठमार होली खेलनें लगी। मैं पुलिसियां लठ्ठ से बचकर भांगनें में सफल हुआ और दुबके दबातें खेतो के बीच से होता हुआ आधी रात को अपनी ससुराल जा पहुंचा।

सभी सोयें हुये थें, बड़ी देर बाद दरबाजा खुला तो साली साहिबा नें कहा अरे जीजा जी हैप्पी होली..... आप बहुत लेट आयें मुझे बहुत तेज नींद आ रही है, आप भी आराम करियें, हम लोग अगली साल होली खेलेगे।

मैं थका हारा बिना होली खेले ही सो गया इस उम्मीद में कि अगली साल साली साहिबा मेरे साथ होली खेलेगी। मैं इस साल होली न खेल पानें के कारण दुखी था। फिर सोचा कि मैं ठहरा मंहगाई का मारा आम आदमी, मेरें नसीब में अब कहॉ रह गया है रंग भरी होली का खेलना।

 

व्यंग्यकार

गौरव सक्सेना


उक्त लेख को दैनिक समाचार पत्र "देशधर्म" नें अपनेें 05 मार्च 2023 के अंक में प्रकाशित किया है तथा हैदराबाद से प्रकाशित समाचार पत्र "हिन्दी मिलाप" नें अपनें होली परिशिष्ट (दिनांक 07 मार्च 2023) में चयनित कर पुरस्कृत किया है।



ससुराल की यादगार होली

ससुराल की यादगार होली


 

Gaurav Saxena

Author & Editor

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