शब्दों की बाजीगरी

 



शब्दों की बाजीगरी


अपनापन, भाईचारा तो कोई मेरे साहब से सीखे। साहब जिन शहरों में नौकरी कर चुके है वहॉ आज भी भाईचारे की अलख जल रही है। या यह कहे कि वहॉ के सभी भाई मिलजुल कर साहब के जानें के बाद भी आराम से चारा खा रहे है। आखिर कुछ बात तो है मेरे साहब में जिससें कुछ ही दिनों में लोग इनके मुरीद हो जाते है और मेरे साहब को अपना बना लेते है। यहीं कारण है कि साहब अपनें कार्यक्षेत्र को कुछ ही समय में अपनें लिए उपजाऊ बना लेते है। यह शहर तो साहब के लिए इतना उपजाऊ हो गया है कि जब- जब साहब के तबालते की बात चलती है तो साहब अपनें भाईचारे के बल पर उसे टलवा देते है। साहब का भाईचारा है ही कुछ ऐसा जो कि मुख्यालय से लेकर हर एक शहर में फैला है।


वहीं साहब के अपनेंपन की भी एक अनूठी दास्तां है, जिस शहर से साहब नौकरी करके यहॉ आये है, वहॉ की एक कहानी बहुचर्चित है। वहॉ का एक सरकारी तख्त साहब को पसन्द आ गया। पसन्द आनें का मतलब है कि वह सामान अब साहब के कार्यालय से उठकर उनके घर जाकर उनके घर को सुशोभित करेंगा। लेकिन सरकारी सामान है अत: कुछ तो शब्दों से खेलना पड़ेगा। बताते चले कि साहब शब्दों के भी पुरानें खिलाड़ी रहे है। इसबार भी उन्होनें शब्दों से खेला और तख्त शब्द में बड़े आ की मात्रा लगाकर अपनें अधीनस्थ कार्यालय को सामान की फाईल भेज दी और तख्त अपनें घर पर ऱख लिया और बदले में अपनें घर से एक बड़ा तख्ता लाकर उसें सरकारी जामा पहना दिया। अधीनस्थ कार्यालय के बड़े बाबू के पास वो तख्ता और फाईल लायी गयी तो बड़े बाबू का भी मन मचल गया अर्थात बड़ा लकड़ी का तख्ता अब बड़े बाबू के घर की बालकनी में सेट कर दिया गया जिसके ऊपर उनके पालतू पक्षियों के पिजड़े शुशोभित हो गये। इस बार बड़े बाबू नें भी शब्दों की बाजीगरी दिखायी और फाइल में तख्ता शब्द में बड़ी ई की मात्रा लगाकर फाईल आगे बढ़ा दी और बदले में अपनें घर से एक तख्ती लाकर सरकारी जामा पहना दिया।


इतिहास गवाह रहा है कि जो शब्दों से खेल पाये वे ही तख्त को तख्ता और तख्ता को तख्ती में बदल पानें में सफल हुयें है बाकी तो सिर्फ अपनें रिटायरमेन्ट के समय गीता लेकर ही विदा हुयें है।

लेकिन साहब का हाल आजकल बेहाल है, कारण यह है कि शब्दों से खेलनें की उनकी यह कला कहीं विलुप्त न हो जायें इसलिए कोर्ट में साहब की पेशी के लिए सन्देश आया है। दअरसल तख्त के तख्ती बनानें की बात जॉच का विषय बन गयी और फिर साहब के पूरे कार्यकाल का लेखा- जोखा देखा गया जिसमें उनके शब्दों के खेल के कई मामले सामनें आये है, इसलिए उन पर कोर्ट का शिकंजा कस गया है। साहब तरह- तरह के हथकन्डे अपना रहे है कि कैसे भी दिन को रात कहा जायें, कैसे भी फिर शब्दों का खेल खेलकर इस मुसीबत से बचा जायें।

इस समय साहब कोर्ट के दण्ड से बचनें के लिए शब्दों की पूजा- अर्चना में लगे है, उनका विश्वास है कि इसबार भी उन्हे शब्दों से राहत मिल जायेगी।

लेकिन शब्दों नें सदैव अपना परचम लहराया है। शब्द सदैव सत्य के साथ चले है लेकिन मेरे साहब जैसे चन्द लोग सोचते है कि शब्दों की बाजीगरी उन्हे शिखर तक पहुंचायेगी। जबकि ऐसा नही है शब्द तो पापों के घड़ा भरनें का इन्तजार करते है। 

इसबार भी शब्दों नें जीत हासिल की जो कि अखबार की मुख्य खबर बनकर सामनें आयी जिसमें लिखा था, शब्दों के बाजीगर को कोर्ट नें सुनायी सख्त सजा।

आज साहब सरकारी कार्यालय की सम्पत्ति में घोर हेरा-फेरी करनें के आरोप में सजा भुगत रहे है।

 

व्यंग्यकार

गौरव सक्सेना

उक्त लेख को दैनिक समाचार पत्र "देशधर्म" नें अपनें 29 जनवरी 2023 के अंक में प्रकाशित किया है। 

शब्दों की बाजीगरी


Gaurav Saxena

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