जिन्दगी का सौन्दर्य है, रूठना
रूठना भी एक कला है, हर कोई रूठा
है। देखा–देखी अब तो वो भी रूठ गये है, जो जीवन को सांसारिक मोह माया बता रहे थे। उन्हे अब क्या चाहियें जो रूठे
बैठे है। कितना रूठा जायें और कब तक रूठा जायें इसके क्या मापदण्ड है इस पर अभी शोधकार्य
चल रहा है। आखिर रूठनें का भी तो कोई मापदण्ड होना चाहियें। चपरासी बाबू से,
बांट तराजू से, नौकर मालकिन से, सास – बहू से, किचिन महंगाई से,
बच्चे किताब से, किताब प्रकाशक से रूठी बैठी
है। हर कोई किसी न किसी से रूठा बैठा है। रूठना अब फैशन बन चुका है या यूं कहे कि
जिन्दगी का सौन्दर्य बन गया है। तभी तो घर की सुन्दरी मुदरी (अंगूठी) के लिए रूठी
बैठी है जो आजकल कोपभवन में निवासित है। कोपभवन से याद आया कि रानी कैकई भी तो
राजा दशरथ से रूठी थी, लेकिन उनके रूठनें का फल सम्पूर्ण जगत
के लिए कल्याणकारी हो गया था। लेकिन सुन्दरी का रूठना कितना कल्याणकारी होगा यह तो
समय रहते ही पता चलेगा। किसी के लिए रूठना कल्याणकारी हो रहा है तो किसी के लिए
हानिकारक हो रहा है।
इस बार तो शर्मा जी
भी अन्य कवियों की बातों में आकर रूठ बैठे और अपना इकलौता अवार्ड सरकार को वापस दे
बैठे, बेचारे गहरी मात खा बैठे। सरकार है कि अब वापस ही नही दे रही है। बेचारे
शर्मा जी अवार्ड की फोटो भी न खींच पायें जो कम से कम सोशल मीडियां में तो
वाह-वाही करा देती। उधर मुंगेरी लाल भी दुखी है वह रूठा तो नही है लेकिन उससे कोई
न कोई हर साल रूठ जाता है जिससे बेचारा हर साल कुंवारा ही रह जाता है। कहीं
बेचारें के फूफा जी तो कही मौसा जी और रही बची कसर जीजा जी रूठ कर पूरी कर देते है,
जिसके फलस्वरूप मुंगेरी लाल को मिलता है तो सिर्फ कुंवारापन और आयु
में बढ़ता एक नया वर्ष। लेकिन बेचारा करे भी तो क्या करें फूफा, मौसा और जीजा के बिना तो भुपन (विवाह) की कल्पना भी नही की जा सकती है।
लेकिन मरता सो क्या न
करता, इस बार मुंगेरी नें ठान ही लिया है कि
फूफा रूठे, मौसा रूठे,
चांहे रूठे जीजा लाल।
दुल्हनियां संग नचेगा
इस बार मुंगेरी लाल।।
सोचा न समझा पहुंच
गया शहर में, जहॉ सब कुछ तो किरायें पर मिलता है। खरीददार की जेंब में गर्मी हो साहब,
तो क्या कुछ नही मिल सकता है इस शहर में। खरीद लाया किरायें पर मौसा,
फूफा और जीजा जी को। किरायें के रिश्ते तो वास्तविक रिश्ते से कहीं
ज्यादा शादी में अपनापन बिखेर रहे है शायद इसी बात का रूपया लगा है। मंडप पर
शान्ति से मुंगेरी को किरायें के जीजा कपड़ें पहना रहे थें तभी शान्ती नें मुंगेरी
के असली जीजा को बुला लिया। शान्ती मुंगेरी की बहिन जो ठहरी। शान्ती कब अशान्ति के
साथ हो गयी पता ही नही चला। पता चला तो बस मुंगेरी नें स्वयं को अस्पताल में पाया,
पास में किराये पर खरीदें गये मौसा, फूफा और जीजा
जी अपनें पेमेंट के लिए खड़े थें। असली जीजा फरार थें..... बेचारा मुंगेरी इस बार
भी बिन दुल्हनियां के ही रह गया।
व्यंग्यकार
गौरव सक्सेना
उक्त लेख को दैनिक समाचार पत्र "देशधर्म" नें अपनें 20 नवम्बर 2022 के अंक में तथा अमर उजाला नें 27 नवम्बर 2022 के अंक में प्रकाशित किया है।
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