होली हुयी बदरंग.......
रामलाल का लड़का शहरी बाबू क्या हुआ रामलाल का तो एक जीवन के लिए अपनें गॉव से नाता ही टूट गया। टूटा है एक विश्वास का रिस्ता, टूटा है अपनें हम उम्र दोस्तो के साथ घन्टों किसी नीम के पेड़ के तले सजती महफिलों का सिलसिला। टूटा है किसी बाग की पगडन्डी पर निरन्तर चलनें का सिलसिला।
बहुत कुछ तो है जो इस शहरी जिन्दगी में रामलाल का खो गया। गॉव का फागुन शायद अब रूठ गया। गीत मल्हारों का दौर अब पीछे छूट गया। त्यौहारो के आनें से पूर्व रामलाल कितना खुश हुआ करता था। होली के लिए तो रामलाल न जानें कितनी बेसब्री से इन्तजार किया करता था। माना कि निर्धनता से नाता तो जन्म से ही था लेकिन त्यौहारों पर परिवार के लिए खुशियां खरीदनें में रामलाल कभी पीछें नही रहा। पकवानों में मिठास तो परिवार और गॉव वालों के साथ ही आती थी जो शायद शहरी आवोहवा में कहीं नदारत हो चली है। गॉवों में संसाधन कम हुआ करते थें लेकिन किसी का कोई काम नही अटकता था। क्या फर्क पड़ता कि किसी वर्ष होली पर किसी के घर पशुधन हानि हो गयी तो कोई रामलाल अपनें घर से उसे खोया दे आता था। आखिर होली पर खोये से बनती गुझियों पर तो सभी का अधिकार है। क्या जमाना होता था कि पूरा गॉव एक बड़े मैदान में होली जलाया करता था।
उसके बाद मिलनें – जुलने और रंग – अबीर खेलनें का सिलसिला शुरू हुआ करता था। हर एक दिल मिलता था रंगो की इस खुशनुमा बरसात में। लेकिन अब बदलते दौर में रंग – अबीर कमजोर पड़ गये है या कहे कि शहरों की आवो-हवा में बदरंग हो गये है। मिलनें जुलनें की प्रथा लगभग समाप्त हो चली है। यह कहे कि चलो बस हो चुका मिलना, ना तुम खाली ना हम खाली।
रामलाल आज होली पर यह सब सोच- सोच कर व्याकुल हो उठा, अचानक से उठ खड़ा हुआ खिड़की खोल कर बाहर झांककर देखता है, चश्में में कैद रामलाल की आंखे अपनी पुरानी होली को खोज रही है। जिसमें उत्साह है उमंग है अपनों का प्यार है और प्राचीन विरासत है।
तभी पीछें से एक तेज आवाज आयी बाबू जी, खिड़की बन्द कर दीजियें धूल मिट्टी कमरे के अन्दर आ जायेगी।
जी बहू करता हूं....... खिड़की बन्द करके रामलाल सोफे पर चुपचाप बैठ गया अपनें गॉव की होली की भीनी – भीनी यादों में................
लेखक
गौरव सक्सेना
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