मेरी मॉ को सर्दी नही लगती...............................
हाड़ कपा देनें वाली सर्द
हवाऔं नें पूरे शहर को थाम रक्खा था, जैसे तैसे बस
जिन्दगी रेंग रही थी। पेट पालनें के लिए मजबूरन लोगो को काम के लिए घर से बाहर
निकलना पड़ रहा था। चौराहो पर सरकारी अलॉव की व्यवस्था नें मानों गरीब और बेसहारा
लोगो को एक जीवनदान ही दे दिया हो। कुछ जागरूक नागरिक नेकी की दीवार के नाम से
मशहूर दीवार पर अपनें पुरानें गर्म कपड़े टांग जाते थें, यह
वस्त्र भी कुछ खुशनसीब गरीबों के तन को ही ढ़क पा रहे थें। इक्का दुक्का लोग सड़क
किनारे बनें होटलो पर तन को गर्म रखनें के उद्देश्य से चाय की चुसकियां ले रहे
थें। सूर्य देवता के दर्शन शहर नें पिछले पन्द्रह दिनों से नही किये थें।
रोज की तरह मैं भी सुबह
उठकर दूध लेनें के लिए निकल पड़ा, तभी पीछे से एक तेज आवाज नें मेरी
एकाग्रता को भंग करनें की कोशिश की। सुनते हो वापस आते समय हलवाई की दुकान से
नाश्ता पैक करा लाना, इतनी सर्दी में मेरा बिस्तर से उठ पाना
मुश्किल है। यह जानी पहचानी आवाज मेरी पत्नी की थी जिनकी दिनचर्या हर सर्दी में ना
जानें क्यो बदल जाती है। श्रीमती जी के शब्द सुनकर ऐसा लग रहा था मानों सर्दी का
सबसे ज्यादा प्रकोप मेरे घर पर ही पड़ रहा हो।
श्रीमती जी की मांग नें
मेरी मुसीबत को और अधिक बढ़ा दिया।, क्योकि मुझे
सुबह 9 बजे ऑफिस के लिए निकलना भी था और अब नास्ते के लिए जल्द ऐसे हलवाई
की तलाश भी करनी थी जिसनें इतनी सर्दी में भी गर्म नास्ता तैयार कर रखा हो। खैर
मेरे दिन की शुरूआत अच्छी थी, जल्द ही मेरी खोज समाप्त हुयी और मैं
अपनें घर के लिए तेजी से निकल पड़ा। घर पहुंचकर श्रीमती जी के व्यवहार से मैं समझ
गया था कि आज मुझे खाना बाहर ही खाना पड़ेगा, खैर गर्म नास्ता
करके मैं नहानें चला गया। नहाकर वापस आया तो श्रीमती जी नें बताया कि अभी आपकी मॉ
का फोन आया था वो कल हमारे घर आ रही है और कुछ दिन हमारे साथ ही रहेगी। यह सुनकर
मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा, परन्तु श्रीमती जी की बनावटी खुशी को
पढ़ पाना मेरे लिए मुश्किल नही था। मैं बेसब्री से अपनी मॉ के आगमन की प्रतीक्षा
कर रहा था।
आखिर मॉ से मिले बहुत दिन जो
हो गयें थे, और उनके हाथों के गर्म भोजन का स्वाद अब हलवाई
के शहरी भोजन में कहॉ मिलता है। मॉ के साथ देर रात तक हमारी बाते चलती रही और फिर
मॉ की मीठी डांट कि अब जा कर सो जाओं, कल जल्दी उठ कर
ऑफिस भी तो जाना है। मैं मॉ से विदा लेकर अपनें कमरें में सोने चला गया। अगली सुबह
तो अब तक की सबसे ज्यादा कहर ढ़हानें वाली थी। सर्द हवायें शरीर को अन्दर तक चीरती
जा रही थी। श्रीमतीजी का हलवाई के नास्ते पर निर्भरता बढ़ती ही जा रही थी, आज
भी रोज की तरह गर्म नास्ता लानें का आदेश मिल चुका था, परन्तु
आज की सर्दी नें आम जनजीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रखा था नतीजन बिना नास्ता लिए
ही घर आना पड़ा।
श्रीमतीजी अभी भी बिस्तर पर
आराम ही कर रही थी। आज मैं अत्यधिक दुखी भी था कि आज मेरे साथ- साथ मेरी मॉ को भी
भूखा रहना पड़ेगा। क्या पता श्रीमती जी पूरे दिन के लिए ही बिस्तर पर आराम ना करती
रहें। मेरे खाली हाथ घर वापस आनें का कारण सुनते ही श्रीमती जी नें अपनें फोन से
शहर के बड़े- बड़े होटलों में फोन लगाकर खाना मगांने की पेशकर शुरू कर दी थी। तभी
पीछे से एक पतली मधुर आवाज कानों में घुलती चली गयी। बेटा कहॉ चले गये थें ? लो
तुम दोनों गर्मागर्म नास्ता करों मै तुम्हारा लंच बाक्स पैक करके लाती हूं। बेटा
आज बड़ी सर्दी है शाम को जल्दी घर आ जाना।
हॉ मॉ सर्दी तो वास्तव में बहुत है पर
तेरे हाथों के गर्म खानें के आगे सर्दी ज्यादा देर कहॉ ठहरती। तभी श्रीमती जी
बोलनें लगी कि अरें मॉ इतनी सर्दी में आपनें इतनी जल्दी नास्ता और खाना कैसे बना
लिया।
मेरी मॉ को सर्दी नही लगती, यह
कह कर मै कमरे से बाहर निकल आया.....
कमरें में एक लम्बा सन्नाटा छा
गया.....
लेखक
जगत बाबू सक्सेना
सह लेखक प्रज्ञा कुंभ
उक्त लेख को दैनिक समाचार पत्र देश धर्म नें अपनें 18 जुलाई 2021 के अंक में प्रकाशित किया है।
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