दीवारों की सरहदे.................. (एक लघु मार्मिक कथा)

 

 
दीवारों की सरहदे.................. (एक लघु मार्मिक कथा)

 दीवारों की सरहदे.................. (एक लघु मार्मिक कथा)

 

आज दीवारे सकरी हो रही, घरों को बांटती दीवारे न जानें कौन सी आधुनिक सोच को सार्थक बना रही है। बड़ा परेशान हूं कि कितनी रात- दिन मेहनत के बाद एक – एक पाई तिनके की तरह जोड़कर एक छोटा सा घरौदा बनाया था, सोचा था कि बुढ़ापें में अपनें सपूतो के साथ आराम से जीवन यापन करूगा, पर पता नही आधुनिकता और एकांकी सोच कहां से मन में आ गयी, जिसनें घरों को ही बांट दिया, या यूं कहे कि दिलों को। 


अब मेरा घर मोटी – मोटी बटती दीवारों के कारण छोटा सा लगता है, और यह कहानी कोई मेरी अकेली नही है। यह तो अब हर घर की कहानी हो गयी है। बस पात्रों के नाम बदल जाते है। वैसे भी एक सामान्य व्यक्ति का घर छोटा ही होता है, और अब हर घर दीवारों में बट रहा है, छतों में अपना हिस्सा निर्धारित कर रहा है। जिससे कारण न तो घरों में स्वछंद वायु आ पाती है और न ही सूर्य देव का आलौकिक प्रकाश। सूर्य देव के प्रकाश से याद आया कि मेरे लिए तो मेरी बढ़ती उम्र ही काल बनती जा रही है, नयी- नयी बीमारियां मेरे शरीर में दस्तक दे रही है। 

 

मैं उनकी कैद में जकड़ता जा रहा हूं, मेरे डॉक्टर नें मुझे सुबह की धूप में बैठनें को कहा है, पर डॉक्टर साहब को कौन बतायें कि अब सकरी होती घरों की छते हम वुजुर्गो के हिस्से में नही है और न ही अब उन छतों पर सूर्य देव का प्रकाश आ पाता है। क्योकि पड़ोसी की गगनचुम्भी दीवारे मुझ जैसे सामान्य व्यक्ति के घरो को तो पहले से ही कैद कर चुकी है, रही बची कसर हमारे गगनचुंभी सोच के सपूतो ने छतो को बांट कर पूरी कर दी है, और अब यह दीवारो की सरहदों के बीच कैद रहना मेरे लिए मुश्किल होता जा रहा है। मै सुबह अब पार्क में भी नही जा सकता क्योकि चलने फिरनें में भी लाचारी दिनो-दिन बढ़ती जा रही है। 


बड़ा चिन्तित हूं कि इस बार की हाड़ कपा देनें वाली सर्दी बिना सूर्य देव के गर्म प्रकाश से कैसे कट पायेगी, और मै अपनें डॉक्टर से हर बार खूब धूप सेकता हूं कह कर कब तक झूठ बोल पाऊंगा। क्या इस सर्दी में मेरी भी स्थिति मुशीं प्रेमचन्द्र के हलकू की तरह हो जायेगी, जो बेचारा हाड़ कपा देनें वाली बर्फीली रातों में अपनी जिन्दगी से ही जंग लडता था, लेकिन हलकू फिर भी भाग्यशाली था कम से कम सुबह की धूप तो सेंक लेता था, और रातों को अपनें खेतों पर आग सेंक लेता था, पर मैं अपनी व्यथा किससे कहूं कि मेरे घर पर आग जलानें तक की अनुमति नही है क्योकि बहू कहती है कि पापा जी घर धुयें से काला हो जायेगा। 


घर तो शायद फिर भी काले से सफेद हो जायेगा पर यह दुखी मन शायद अब शान्ति की सफेदी में परिवर्तित नही हो पायेगा।


लेखक
गौरव सक्सेना 

उक्त लेख को दैनिक समाचार पत्र " देश धर्म " नें 29 नवम्बर 2020 के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर स्थान प्रदान किया है। 

दीवारों की सरहदे.................. (एक लघु मार्मिक कथा)



Gaurav Saxena

Author & Editor

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