कहानी
बात कोई ज्यादा पुरानी नही
है, ठिठुरती ठंड़ का समय था, कोहरे की सफेद चादर ने मानो अपने आवेश में शहर को ढ़क
रक्खा हो। जैसे तैसे लोगो की जिन्दगी जीविकापार्जन हेतु रेंग रही थी, इसी बीच मुझे
एक जरूरी काम से लखनऊ जाना पड़ा, मैं स्टेशन पर ट्रेन आगमन की बेसब्री से प्रतिक्षा
कर रहा था, और लेट लतीफ ट्रेनों के इन्तजार में ठिठुरते यात्रियों की मनोव्यथा को
महसूस कर रहा था, मेरी गाड़ी बस कुछ ही समय में प्लेटफार्म पर दस्तक देने वाली थी।
तभी मेरी निगाह मेरे अजीज मित्र सुधाकर पर पड़ी जो कि एक ईमादार, कर्मठ हिन्दी के
प्रवक्ता है और शहर के एक मशहूर विश्वविधालय में कार्यरत है, अरे मित्र इतनी जल्दी
कहॉ भागे जा रहे हो ? “ बस लखनऊ तक का सफर है अचानक से एक साहित्य
सम्मेलन मे शामिल होना है”, अरे तब तो बहुत अच्छा ..सफर आपकी उपस्थिति सें यादगार बन
जायेगा,
तभी ट्रेन ने भी दस्तक दे दी और हम दोनो ने आमने सामने की खिड़की के पास
वाली सीट पर कब्जा कर लिया, और फिर हमारी पुरानी यादों का सिलसिला प्रारम्भ हो
गया, काफी देर बाद मैने अपने परेशान मित्र से उनकी बैचैनी की वजह पूछी जिसको वह मुझसे
छुपाने का असफल प्रयास स्टेशन से ही लगातार कर रहे थे। बड़ी मुशकिल से उन्होने
बताया कि वे टिकट खिड़की पर अत्यधिक भीड़ होने के कारण टिकट नही खरीद पाये और अन्य
कोई गाड़ी न होने के कारण बिना टिकट ही यात्रा कर रहे है। तो मैने उन्हे हिम्मत
बधांते हुये चिन्तामुक्त होकर यात्रा का आनंद लेने को कहा तो उन्होने बनावटी
मुस्कराहट का परिचय दिया। बीच – बीच मे मैं उनसे साहित्य, समसामायिक ज्वलन्त
मुद्दों पर चर्चा करता जा रहा था, और हम दोनो की चर्चा राजनीतिज्ञ गलियारे को भी
स्पर्श कर आती थी, खेत खलियान, बेरोजगारी और न जाने किन किन विषयों का हम
मनोस्पर्श कर रहे थे, इसी बीच मैने प्रवक्ता साहब से उनकी वापसी के बारे में पूछा
तो पता चला उनकी वापसी मेरी वापसी से मेल खा चुकी है,
मेरी तो खुशी का ठिकाना ही
नही रहा। मैने तुरन्त अपने आप को वापसी में श्री मान जी के साथ आरक्षित कर लिया।
बातो ही बातो में पता ही नही चला कब हम नबाबी शहर लखनऊ पहुंच गये। और चन्द दिनो
बाद वापसी रबाना हेतु मैने समय से लखनऊ स्टेशन पहुंचकर सुधाकर से उनके आगमन के
बारे मे पूछा तो उन्होने नियत स्थान पर मिलने को कहा और मैने मिलते ही तपाक से पूछा
“ क्यो मित्र अब तो
टिकट ले लिया या नही.... तो उन्होने हॉ में गर्दन हिलायी तो मैने फिर कहा हमें भी
तो दिखा दो अपना टिकट और मैने उनकी जेब से झांकते हुये टिकट को खींचा और फिर बड़े
अच्मभे से पूछा कि क्या आपके साथ कोई अन्य भी यात्रा करेगा ? तो उन्होने कहा नही
मैं अकेला आपके साथ चलूंगा, तो फिर यह दो टिकट किस लिए खरीदे साहब.. तो वो बोले
अरे चलो छोड़ो यह सब, गाड़ी मे बैठो चलकर। हमारी यात्रा ने उड़ान भरनी शुरू कर दी
थी, लेकिन इस बार सुधाकर द्वारा एक अतिरिक्त टिकट खरीदने के कारण मै परेशान था।
मैने फिर से पूछा कि आपने एक अतिरिक्त टिकट क्यो खरीदा।
तो वो कहने लगे कि मैं जब
आपके साथ लखनऊ की यात्रा मे बिना टिकट था तो मैने टिकट न लेकर भारतीय रेलवे का
नुकसान किया था और उसी नुकसान की भरपाई हेतु यह एक अतिरिक्त टिकट खरीदा है। यह
सुनकर मैं स्तब्ध रह गया और सोचने लगा कि ईमानदारी की इतनी प्रबल भावना और देश की
सम्पत्ती की हानी की इतनी चिन्ता वह भी 21वी सदीं जैसे युग में। मेरी यात्रा तो
गन्तव्य तक पहुंच गयी पर यह यात्रा नि:सन्देह मुझें ईमानदारी और
देश प्रेम की भावना का पाठ पढ़ा गयी। काश हर देशवासी सुधाकर जैसी सोच को अपने जीवन
में अमल मे लाये तो नि: सन्देह मेरे देश को पुन: विश्व गुरू बनने से
कोई नही रोक पायेगा।
कहानीकार
गौरव सक्सेना
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