इन्सानों की दिल्ली अभी भी दूर है

 

इन्सानों की दिल्ली अभी भी दूर है



इन्सानों की दिल्ली अभी भी दूर है


इस बार का साहित्य अकादमी पुरूस्कार फिर से कोई इन्सान ले गया। आखिर यह कब तक चलता रहेगा। हम जानवरों के नामों का प्रयोग साहित्यिक लेखनी में एक लम्बे अरसे से होता चला आ रहा है। कभी मुहावरो के रूप में तो कभी लोकोक्ति के रूप में और तो और अब तो हमारे नामों का प्रयोग राजनीति में भी खूब हो रहा है। और बदलें में हम जानवरों को क्या मिलता है सिर्फ इन्सान की लाते, उनकी डांट, फटकार और मार..


लेकिन अब हम ऐसा नही चलनें देगे यदि हमारे नामों का प्रयोग कहीं भी होता है तो इन्सान को उसके लाभ का अंश हम जानवरों को भी देना होगा। आखिर हमारे भी तो बाल बच्चे है। इस महंगाई में हम कब तक दुकानों के नीचें दौनें चाटे। तलबे चाट-चाटकर लोग न जानें कहॉ से कहॉ पहुंच गये और हम वहीं के वहीं पत्तल दौनों में पड़े हुये है। हमें भी पुरूस्कार चाहियें, हमें भी राजनीति से लाभ चाहियें।


सभी जानवरों नें एक सुर में आवाज उठाई तो सभापति शेर नें सभी को शांत रहकर एक–एक कर अपनी समस्या रखनें की अपील की। अपनी बारी में एक वृद्ध कुत्ते नें अपनी जीभ लपलपाकर कहा कि राजनीति और साहित्य में उसकी जाति का नाम खूब धड़ल्ले से लिया जा रहा है। तोड़ मरोड़ कर नयी–नयी उपमायें दी जा रही है। हमारी कुकुरमुत्ता कोम को नित्य बदनाम किया जा रहा है। लेकिन हमनें कभी कुछ नही कहा, हद तो तब हो गयी जब नेता जी की गाड़ियों के पीछे दौड़ते–दौड़ते हमारे एक जवान कुत्ते को उनके काफिले की कार नें रौद दिया। आखिर आप लोग ही बताईयें कि उस जवान कुत्ते का क्या दोष था। क्या समाज में पहरेदारी करना भी अपराध हो गया है। बिल्ली मौसी नें घूघट को मुंह में दबाते हुये कहा कि राजनीति में विरोधियों के लियें कहा जाता है कि खिसियानी बिल्ली खम्बा नौचें। अरे जब इन्सान-इन्सान को नौच रहा है तो हमारे खम्बे नौचनें में क्या बुराई है।


रेगिस्तान से सभा में पधारे लम्बू ऊंट नें कहा कि हर चीज पर क्या इन्सान का ही हक हो गया है जो हमेशा उसे बदनाम किया जाता है। रेगिस्तान में पेट भर पानी नही मिलता है इसलिए जब कभी हम जीरा चबा लेते है तो इन्सान को उसमें भी एतराज है और साहित्य में वह लिखता है कि ऊंट के मुंह में जीरा, अब आप ही बतायें इस महंगाई में जीरा कौन सा कौड़ियों के भाव में बिकता है।


कुछ इसी तरह की मिली जुली प्रतिक्रिया मिंकू बन्दर ने भी दी, उसनें कहा कि इन्सान कहता है कि बन्दर क्या जानें अदरक का स्वाद। अरे तुमनें कब हमें कुछ खानें को दिया है, हमारे बाग-बगीचे तक को उजाड़ कर अपनी बिल्डिगें खड़ी कर ली है। हमारे पेट पालनें तक के तो लाले पड़े है हम भला अदरक का स्वाद क्या किसी को बता पायेगे।


तभी हांफता हुआ गधा रेककर बोला कि उसकी यह हालत इन्सान नें कर दी है, उसका तो कोई वजूद ही नही रहा उसके नाम के प्रयोग से तो कोई भी जगह नही बची है। काम कोई बिगाड़ता है और नाम उसका प्रयोग किया जाता है। बेचारा गधा इन्सानों की हरकतों से परेशान होकर रोनें लगा।


समापन समारोह में सभा में यही निर्णय लिया गया कि अब सभी जानवर सरकार को ज्ञापन देनें दिल्ली कूंच करेगे, जहॉ वे सरकार से मांग करेगे कि यदि उनके नामों का उल्लेख कही भी कोई भी इन्सान करता है तो इन्सान को उसके लाभ का 30 प्रतिशत जानवरों को देना होगा। 30 प्रतिशत इसलिए कि इन्सान उनके नामों का जिक्र महीनें के तीसो दिन जो करता है।

सभी नें हां में हां भरी और एक सुर में निकल पड़े दिल्ली की ओर, लेकिन इन्सानों की भीड़ में जानवरों के लिए दिल्ली अभी भी बहुत दूर है।

 

युवा व्यंग्यकार

गौरव सक्सेना

उक्त लेख को दैनिक समाचार पत्र "देशधर्म" नें अपनें दिनांक 08 जनवरी 2023 के अंक में प्रकाशित किया है। 

इन्सानों की दिल्ली अभी भी दूर है


Gaurav Saxena

Author & Editor

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