हरि रूठे गुरू ठोर है, गुरू रूठे नही ठोर .....


गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥


प्राचीन समय की गुरूकुल शिक्षा पद्धति परम्परा आज समाज से पूरी तरह नदारत हो चुकी है। तो वहीं गुरू- शिष्य के मध्य सम्बन्ध की गरिमा धूमिल होती दिख रही है। वर्तमान परिवेश में आधुनिकता के वशीभूत शिष्यों के मन में गुरूऔं के प्रति आदर भाव समाप्त हो रहा है। यदि आज गुरू किसी गलती पर अपने शिष्य से नाराज होकर उसे डांट दे तो शिष्य, गुरू से ही झगडंने लगते है और झगड़ा फसाद पर आमदा हो आते है। इसके चलते वहीं आज गुरूओं ने भी अपने शिष्यों की मनोवृत्ति को पढ़कर उन्हे डांटना इत्यादि बन्द कर दिया है। जिसके परिणामस्वरूप बच्चों में अनुशासनहीनता प्रत्यक्ष रूप से देखी जा सकती है। 


जबकि गुरू को तो कुम्हार की संज्ञा देकर सम्मानित किया गया है, जिसमें बताया गया है कि गुरू ठीक उसी प्रकार से अपने शिष्यों को तैयार करता है जिस प्रकार से एक कुम्हार अपने वर्तनों को चाक पर थोड़ा मार देकर, थोड़ा तेज गति से घुमाकर कच्ची मिट्टी से खूबसूरत, अमूल्य व उपयोगी वर्तन तैयार करता है। तथा इस बात का वह ध्यान भी रखता है कि उसकी मार इतनी तेज न हो जाये जिससे वर्तन ही टूट जाये इसीलिए वह वाहरी चोट देते वक्त वर्तन को अन्दर से सहारा भी देकर रखता है। जरा सोचिए, यदि चाक पर कार्य करते वक्त कुम्हार मिट्टी को पीटे न और जैसा मर्जी वैसा वर्तन बनने दे तो क्या वह वर्तन बन पायेगा और उसके भविष्य से समाज को क्या कोई उम्मीद रखनी चाहिये, उत्तर शायद नकारात्मक ही होगा। ठीक वैसी ही स्थिति आज स्कूलों की हो चली है कि आज बच्चों को गुरूजनों का शायद कोई भय ही नही दिखता। यही कारण है कि समाज को सड़को, बसो, रेलगाड़ियों में युवकों की अनुशासनहीनता के उदाहरण देखनें को मिलते है। किसी भी देश का भविष्य उस देश के कर्णधार कहे जाने वाले युवाऔं पर ही टिका होता है, और युवाऔं का इस कदर अपने समाज से अनुशासनहीनता का व्यवहार निश्चय तौर पर आत्मचिन्तन और मन्थन का विषय है।  


गुरू कुम्हार शिष्य कुंभ है, गढि़ गढि़ काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।



      आज युवाऔ का भटकाव कहीं न कहीं उनके अन्दर सही मान्वीय मूल्यों का बीजारोपण न हो पाना तथा उनके अन्दर पनपते अनुशासनहीनता का ही प्रतिफल कहा जा सकता है। कारण और भी है परन्तु समाधान माता-पिता और गुरू जनों के पास ही है। माता-पिता को चाहिए कि वे घर से ही बच्चों के अन्दर मानवीय संस्कारो का बीजारोपण करें तथा उनके मन में यह बात भी बैठाये कि शिक्षा के मार्ग में गुरूऔं की अति महत्ता है और हमारी गलतियों पर गुरूओं की छोटी डांट बच्चों के भविष्य के लिए एक औषधि के रूप में है। जिसे बच्चे अन्यथा में कदापि न ले। छात्रों के जीवन में गलत चीजो के प्रति गुरूओं का भय अवश्य रहना चाहिये और गोस्वामी तुलसीदास ने श्री रामचरितमानस में लिखा भी है कि  भय बिन होत न प्रीत। 


हमारे देश में गुरू पूजन, गुरू सम्मान की प्राचीन परम्परा रही है, और गुरुओं को सदैव श्रैष्ठ माना गया है, यह धरा गुरूओं के उपकारों की सदा ऋणी रहेगी। हम सभी को चाहिये कि गुरूओं को सदैव सम्मान की दृष्टि से देखे और जीवन पर्यन्त उनके उपकारों को स्मरण रक्खे। 
लेखक
गौरव सक्सेना

Gaurav Saxena

Author & Editor

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